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नव ग्रहों का परिचय?


कुण्डली में शुभ स्थिति होने पर तथा राहु के अशुभ फलदायक होने पर केतु शुभ फलदायक है। उदाहरण राहु तीसरे भाव में तो केतु नवें भाव में शुभ फलदायक है। इसी प्रकार राहु छठे भाव में हाने पर केतु बारहवें भाव में शुभ फलदायक होता है। गोचर में भी दो में से गए अशुभ पफ़ल तथा दूसरा शुभ फल देता है।

सूर्य- पूर्व दिशा का स्वामी, पुरुष, रक्तवर्ण, अग्नि तत्व, पित्त प्रकृति, पापग्रह, आत्मा, शरीर, आरोग्यता, राज्य, देवालय, लग्न व पिता का कारक, नेत्र, कलेजा, मेरुदण्ड तथा स्नायु पर प्रभाव, लग्न से सत्पम स्थान तर उत्तरायण में बली, मकर से मिथुन राशि तक में चेष्टाबली। सूर्य प्रभावित व्यक्ति में शारीरिक रोग-सिरदर्द, अपचन, ज्वर, क्षय, अतिसार, नेत्र रोग, मंदाग्नि, मानसिक रोग। सूर्य से अपमान तथा कलह का विचार भी किया जाता है।

चन्द्रमा- वासव्य दिशा का स्वामी, स्त्री, श्वेत वर्ण, जल तत्त्व, वात, श्लेष्मा, रक्त का स्वामी, माता, पिता, मन, भावना, चित्तवृत्ति, शारीरिक पुष्टि, शासका की कृपा, सम्पत्ति, चतुर्थ स्थान का कारक चतुर्थ भाव में बली तथा कारक, मकर से मिथुन तक उत्तरायण में चेष्टाबली। चन्द्रमा प्रभावित व्यक्ति में शारीरिक रोग-पाण्डु रोग, जलज और कफज रोग, मूत्र रोग, पीनसरोग, गुप्तांग के रोग, मानसिक रोग, पागलपन, व्यर्थ घूमना, उदर एवं मस्तिष्क सम्बन्धी रोग। शुक्ल पक्ष की दशमी से कृष्ण पक्ष की पंचमी तक चन्द्रमा पूर्ण बली, वृषभ तथा कर्क राशि में बली, केन्द्र त्रिकोण में बली होकर शुभ ग्रह का फल। कृष्ण पक्ष की षष्ठी से शुक्ल पक्ष की नवमी तक निर्बल, अस्तगंत होने पर निर्बल, नीच ग्रह राहु तथा शनि की युति करने पर निर्बल।  6, 8, 12 भावों में निर्बल होकर पाप ग्रह का अशुभ फल देता है। चन्द्रमा, दूध, अनाज, खाद्य पदार्थ, दवा, वनस्पति, जीव, जल, जलवायु, मौसम, होटल, पर्यटन, तथा लकड़ी का कारक है।

मंगल- दक्षिण दिशा का स्वामी, पुरुष, पित्त प्रकृति रक्त वर्ण, अग्नि तत्त्व, पाप ग्रह, धैर्य तथा पराक्रमि का कारक, भूमि, भवन, सेना, पुलिस, गुप्तचर, सहोदर, भाई, बहन, बिजली, वाहन का कारक, 3 तथा 6 भाव में बली, 2 भाव में निष्फल, मकर राशि में उच्च का, दशम भाव में दिग्बली, चन्द्रमा के साथ युत होकर चेष्टा बली। मंगल उत्तेजना, प्रलोभन तथा तृष्णा देकर अंतिम परिणाम दुःखदायक ही देता है।

बुध- उत्तर दिशा का स्वामी, नपुंसक ग्रह, त्रिदोष प्रकृति, श्यामवर्ण, पृथ्वी तत्त्व, शुभ ग्रह से युक्त होकर शुभ फल, पाप ग्रह से युक्त होकर अशुभ फल देने वाला, ज्योतिष शिक्षा, शिल्प, कानून, वाणिज्य, चिकित्सा, मुद्रण, प्रकाशन, गणना का कारक, चतुर्थ तथा दशम स्थान का कारक, चतुर्थ स्थान में निष्फल वाणी, जिह्वा, तालु, गुप्त रोग, पागलपन, गूंगापन, आलस्य, वात रोग, सफेद कुष्ठ रोग का विचार।

बृहस्पति-ईशान दिशा का स्वामी, पुरुष ग्रह, पीत वर्ण, आकाश तत्त्व, लग्न में बली, चन्द्रमा से युक्त रहने पर चेष्टा बली, चर्बी, कफ, वित्त, बीमा, वाणिज्य, पुत्र, पौत्र, विद्या, आध्यात्म, धर्म, पारलौकिक सुख, सन्तान, अचल सम्पतित्त का कारक।

शुक्र-आग्नेय दिशा का स्वामी, स्त्री ग्रह, श्याम गौर वर्ण, कार्य कुशल, छठे भाव में निष्फल सातवें भाव में अशुभ फलदायक, जल तत्त्व, कफ तथा वीर्य का कारक, कामेच्छा, साहित्य, संगीत, चित्रकला, कविता, पुष्प, नैत्र, वाहन, शय्या तथा स्त्री (पत्नी) व पुरुष के विवाह का कारक। दिन में जन्म होने पर इससे माता का विचार, सांसारिक सुख तथा नकद धन का भी कारक। वीर्य संबंधी रोग, मूत्ररोग, जलज रोग, कफज रोग का विचार।

शनि-पश्चिम दिशा का स्वामी, नपंसुक ग्रह, वात, श्लेष्मिा प्रकृति, कृष्णवर्ण, वायु तत्त्व, आयु, मृत्यु, शारीरिक बल, अचल सम्पत्ति, उदारता, विदेशी भाषा, प्रजातंत्र संसद, विधायिका, न्याय व्यवस्था, मोक्ष, यश, नौकरी, मूर्च्छा, पेट रोग का विचार। शनि दुःख देकर पाप मुक्त कर देता है। अतः परिणाम शुभ फलदायक, सुखदायक तथा कल्याणकारी होता है।

राहु-नैर्ट्टत्य दिशा का स्वामी, कन्या राशि स्थित भाव का उपस्वामी पाप ग्रह, जिस भाव में स्थित हो तथा जहां दृष्टि डाले वहां के मामले की उन्नति, दाद, चेचक, प्रेत बाधा, कोढ़ कफ, वात, शूल, खांसी, श्वास, मूर्च्छा, सन्निपात, हैजा, हृदय रोग का कारक।

केतु-कृष्ण वर्ण, क्रूर पाप ग्रह, पश्चिम दिशा का उपस्वामी, मिथुन राशि स्थित भाव का उपस्वामी, चर्मरोग, पैरों के रोग, नासूर, विष बाधा, दुर्घटना, चोट का विचार, हाथ तथा पाचन रोग का का भी विचार।

नोटः-राहु केतु दोनों ग्रह एक साथ कभी भी शुभ फलदायक अथवा अशुभ पफ़लदायक नहीं होते हैं। एक जब शुभ होता है, तो दूसरा अपने आप ही अशुभ हो जाता है।


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